‘यह भी कोई अवकाश है?’
पहले करते थे बेसब्री से इंतजार,
लेकर आएगा खुशियां अपार,
कड़ी धूप के बीच सुख की बहार,
हाँ , यह ग्रीष्मावकाश ही था मेरे यार!
किंतु अब दृश्य बदल गया है,
गर्मियों में सूरज ही कहीं छिप गया है।
सूर्य के तेज से दूर ए. सी. कमरों में,
अब घर कैद सा बन गया है।
याद आते हैं वो सुनहरे पल,
सूखे हरे घासों पर खेलते थे हम कल।
आज फर्श की टाईलें भी चुभने सी लगी है,
यह अवकाश अब सजा सी लगने लगी है।
जिन पुराने झूलों से हो गए थे बोर,
आज वही झूले इस कैद से बेहतर लगते हैं।
पहले गुस्सा दिलाते थे वे दोस्त जब करते थे शोर,
आज कमरे के सन्नाटे भी कान को चुभने लगते हैं।
समय का चक्र घूम गया है,
प्रकृति दे रही है दंड,
जिन इमारतों से हमने किया था प्रकृति को कैद,
उन्हीं दीवारों के पीछे आज हो गए हैं बंद।
~ आस्था कौशिक
My this poem was published in my school’s Newsletter ☺! Well, really these holidays were like….’schools are better than holidays’😂
Hope you enjoy reading it…
Nice one, dear.
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Wah .. beautiful
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